Tuesday, October 28, 2008

गर न हो अंधेरा
उजाले का गुरुर हो जाएगा चूर
वैसे भी शास्वत तो अंधेरा है
यही तेरा है यही मेरा है
फिर क्यों चाहते हैं हम
इसी अंधेरे को दूर भगाना
जिंदगी को बेगाना बनाना

दरअसल,
उजाले ने रची है साजिश गहरी
सुबह शाम और दुपहरी
काम करती रहती है महरी
इसीलिए रात है उसके नाम
और जो उजाले का जपते रहते हैं नाम
उनके पास नहीं कोई काम
दीपावली पर तो अब न छलकाएं जाम
मेरी बात सुनें और गुनें
तब तक के लिए मैं तो चली
अच्छा जनाब, राम-राम

Wednesday, October 1, 2008

जो गए थे देखने तेरा चेहरा

जो गए थे देखने तेरा चेहरा, छूने तेरे पांव
क्यों छीना उनसे तूने, उनका घर उनका गांव

सुबह के गए क्यों नहीं लौटे बाबा, क्यों रो रही है माई
बच्ची को कैसे समझाऊं, छिन गए बाबा, छिन गई ताई

कहते हैं कि इस बार हिंदू है मरा, मुसलमानों ने मारा
फिर मुझे क्यों लगता कि इंसान है मरा, हैवानों ने मारा

गुस्सा, नफरत, साजिश और घात, क्यों नहीं भाता
अब कहते हैं लोग मुझसे, तुझे जीना नहीं आता

उनका आरोप है मुझपर कि तेरी आंखें हैं पथराई
बस इतना सुनकर ही ये झट से फिर भर आईं

अब और हमला मत करो, पाट डालो ये खाई
खुशी चाहे हर कोई, सुन मेरे बंधु, ओ मेरे भाई