Tuesday, February 10, 2009

वैलंटाइंस डे सेलिब्रेट करूंगी ठेकेदारों को ठेंगा दिखा

ओ धर्म और संस्कृति के अधकचरे ठेकेदारों
मैं तुम्हारी बहन खुशी चोना ( तुम चाहो तो मुझे कोई और संबोधन भी दे सकते हो) वैलंटाइंस डे के दिन मिलने के लिए बुला रही हूं। दरअसल, 'मनाना चाहता है तो मान ले त्योहार का दिन आज ही होगा' की तर्ज पर मैं मानती हूं कि किसी भी दिन आप कोई भी त्योहार मना सकते हैं। और मैं चाहती हूं अपने सिरफिरे भाइयों के साथ (ये ऐसे भाई हैं जिन्हें अपनी बहन से भी बात करने की तमीज नहीं, ऐसा मेरा भरोसा है) वैलंटाइंस डे के दिन राखी का त्योहार मनाना।
यह बात अटपटी लग सकती है आपको। पर क्या करूं? ये मेरे जो नाकारे और नाकाबिल भाई हैं वह कुंभकरण की नींद सोते हैं साल भर। उनकी मोतियाबिंदी आंखें समाज की कोई बुराई देख ही नहीं पातीं। एक बात और है कि वह दिमाग से भी जड़ हैं । यही वजह है कि जो मुहब्बत, जो प्यार, जो अपनापा हर धर्म में पूजा जाता है, वह इनकी निगाह में समाज में पसरी गंदगी है। और वैलंडाइंस डे के दिन जब हम रोमांचित होते हैं इस अपनापे को महसूस कर, अपनी अधकचरी निगाहों के उन्माद में मेरे भाई सड़कों पर निकल आते हैं डंडे उठाए।
मुझे लगता है कि मेरे भाइयों के भीतर कहीं कोई फ्रस्टेशन है। या तो वे अपनी करतूतों के कारण समाज से बहिष्कृत कर दिए गये हैं या खुद को मिसफिट समझते हैं और अपने अस्तित्व को बनाए और बचाए रखने के लिए कोई न कोई उदंडता करते रहते हैं।
बहरहाल, अपने इन भाइयों से कहना चाहती हूं कि कर लें वह एक दिन हमारा विरोध। हम साल के 364 दिन मना लेंगे वैलंटाइंस डे। पूछना चाहती हूं कि क्या वह रोक सकते हैं हमें? अरे मेरे पाखंडी भाइयों, कम से कम आप इतना तो समझ लो कि हम प्यार की नदी में बह रहे हैं। इस नदी का वेग ऐसा होता है कि आसपास के मुहान कट कर नदी का हिस्सा बन जाते हैं। किसी भी अवरोधों के सामने नदियां रुका नहीं करतीं बल्कि अवरोधों को अपने साथ बहा ले जाया करती हैं। मत पड़ना तू हमारे रास्ते में। वर्ना जो खंडहरनुमा अस्तित्व का अवशेष बचा है उसे इस कदर बहा ले जाऊंगी कि तू खुद भी उसे नहीं पहचान पाएगा।
चल मिलते हैं हम वैलंटाइंस डे के दिन। मेरी पहचान यह होगी कि मेरे एक हाथ में अपने साथी के लिए लाल गुलाब होगा और दूसरे हाथ में तेरे लिए राखी। इन दोनों की गर तू तौहीन करेगा तो यकीन मान, दुर्गा बन कर संहार करूंगी तेरा।
तेरी शुभचिंतक
खुशी चोना

Monday, November 10, 2008

मां कैसी होती है

यह कैसा पुरुष है
जो करता रहता है दिन भर
कमरों से लेकर बरामदे तक को
संवारने की मेहनत

वाकई यह पुरुष ही है न
जो देखकर किसी साथी की तकलीफ
रो पड़ता है भीतर ही भीतर
गोया उसका दर्द
उससे ज्यादा महसूस कर
कांप जाते हैं होठ
आंखें जाती हैं भर

यार मेरे, तू भी देख जरा
कौन है यह
इस सोसाइटी की नुक्कड़ पर खड़ा
बेचैनी अपने चेहरे पर पाले
जिसे उसके बच्चे
जैसे चाहें
वैसे नचा लें
यह तुझे भी पुरुष ही लग रहा है न!

खा गई न तू भी धोखा!
पहचान इसे
बच्चों का इंतजार कर रहा है यह शख्स
और जब भी नजर आता है मुझे ऐसा कोई पुरुष
यकीन मान,
मुझे दिखता है उसमें मां का अक्स

Tuesday, October 28, 2008

गर न हो अंधेरा
उजाले का गुरुर हो जाएगा चूर
वैसे भी शास्वत तो अंधेरा है
यही तेरा है यही मेरा है
फिर क्यों चाहते हैं हम
इसी अंधेरे को दूर भगाना
जिंदगी को बेगाना बनाना

दरअसल,
उजाले ने रची है साजिश गहरी
सुबह शाम और दुपहरी
काम करती रहती है महरी
इसीलिए रात है उसके नाम
और जो उजाले का जपते रहते हैं नाम
उनके पास नहीं कोई काम
दीपावली पर तो अब न छलकाएं जाम
मेरी बात सुनें और गुनें
तब तक के लिए मैं तो चली
अच्छा जनाब, राम-राम

Wednesday, October 1, 2008

जो गए थे देखने तेरा चेहरा

जो गए थे देखने तेरा चेहरा, छूने तेरे पांव
क्यों छीना उनसे तूने, उनका घर उनका गांव

सुबह के गए क्यों नहीं लौटे बाबा, क्यों रो रही है माई
बच्ची को कैसे समझाऊं, छिन गए बाबा, छिन गई ताई

कहते हैं कि इस बार हिंदू है मरा, मुसलमानों ने मारा
फिर मुझे क्यों लगता कि इंसान है मरा, हैवानों ने मारा

गुस्सा, नफरत, साजिश और घात, क्यों नहीं भाता
अब कहते हैं लोग मुझसे, तुझे जीना नहीं आता

उनका आरोप है मुझपर कि तेरी आंखें हैं पथराई
बस इतना सुनकर ही ये झट से फिर भर आईं

अब और हमला मत करो, पाट डालो ये खाई
खुशी चाहे हर कोई, सुन मेरे बंधु, ओ मेरे भाई

Monday, September 29, 2008

बम और घुटन

बम और घुटन
थमी सांसें और मिला कफन

ख्वाहिशें हो रही हैं दफन
कहां खो गया इस देश का अमन

अब बचा है कोई ऐसा चमन
जहां लग सके मेरा मन

अब जल रहा है तन-बदन
सूना हो गया गगन

कहीं बहस तो कही विष वमन
पर सब हैं अपने में मगन

Wednesday, September 17, 2008

हाय दिल्ली, हाय दिल्ली

खूब कमाओ, खूब बहाओ
गरीबों को दिखाओ, उन्हें सताओ
पर खुद रहो बम-बम

जब हो बात त्याग करने की
मुंह छुपाओ, दुम दबाओ
पर बात निकले जब दावेदारी की
जोर से बोलो हम-हम

हाय दिल्ली, हाय दिल्ली
तू जब उड़ाती गरीबों की खिल्ली
दिल कहता : तुझसे तो बेहतर भूखी बिल्ली

Tuesday, September 9, 2008

करवटों में जब गुजरी हो रात


करवटों में जब गुजरी हो रात
गहरे कहीं दबी होगी कोई बात

ओ मेरे मीत, जब हो तेरा साथ
तो फिर कैसा डर, किसकी घात

दुश्मन भले हों छः, सात या आठ
पढ़ा लूंगी मैं उन्हें दोस्ती का पाठ

विद्वान मूर्खों की नहीं होती कोई जात
ठान ले तू तो दे सकती है करारी मात

और अंत में

है यही असली, सच्ची और खरी बात
भले मारे तू लात, पर रहेगा मेरा साथ