Monday, November 10, 2008

मां कैसी होती है

यह कैसा पुरुष है
जो करता रहता है दिन भर
कमरों से लेकर बरामदे तक को
संवारने की मेहनत

वाकई यह पुरुष ही है न
जो देखकर किसी साथी की तकलीफ
रो पड़ता है भीतर ही भीतर
गोया उसका दर्द
उससे ज्यादा महसूस कर
कांप जाते हैं होठ
आंखें जाती हैं भर

यार मेरे, तू भी देख जरा
कौन है यह
इस सोसाइटी की नुक्कड़ पर खड़ा
बेचैनी अपने चेहरे पर पाले
जिसे उसके बच्चे
जैसे चाहें
वैसे नचा लें
यह तुझे भी पुरुष ही लग रहा है न!

खा गई न तू भी धोखा!
पहचान इसे
बच्चों का इंतजार कर रहा है यह शख्स
और जब भी नजर आता है मुझे ऐसा कोई पुरुष
यकीन मान,
मुझे दिखता है उसमें मां का अक्स

Tuesday, October 28, 2008

गर न हो अंधेरा
उजाले का गुरुर हो जाएगा चूर
वैसे भी शास्वत तो अंधेरा है
यही तेरा है यही मेरा है
फिर क्यों चाहते हैं हम
इसी अंधेरे को दूर भगाना
जिंदगी को बेगाना बनाना

दरअसल,
उजाले ने रची है साजिश गहरी
सुबह शाम और दुपहरी
काम करती रहती है महरी
इसीलिए रात है उसके नाम
और जो उजाले का जपते रहते हैं नाम
उनके पास नहीं कोई काम
दीपावली पर तो अब न छलकाएं जाम
मेरी बात सुनें और गुनें
तब तक के लिए मैं तो चली
अच्छा जनाब, राम-राम

Wednesday, October 1, 2008

जो गए थे देखने तेरा चेहरा

जो गए थे देखने तेरा चेहरा, छूने तेरे पांव
क्यों छीना उनसे तूने, उनका घर उनका गांव

सुबह के गए क्यों नहीं लौटे बाबा, क्यों रो रही है माई
बच्ची को कैसे समझाऊं, छिन गए बाबा, छिन गई ताई

कहते हैं कि इस बार हिंदू है मरा, मुसलमानों ने मारा
फिर मुझे क्यों लगता कि इंसान है मरा, हैवानों ने मारा

गुस्सा, नफरत, साजिश और घात, क्यों नहीं भाता
अब कहते हैं लोग मुझसे, तुझे जीना नहीं आता

उनका आरोप है मुझपर कि तेरी आंखें हैं पथराई
बस इतना सुनकर ही ये झट से फिर भर आईं

अब और हमला मत करो, पाट डालो ये खाई
खुशी चाहे हर कोई, सुन मेरे बंधु, ओ मेरे भाई

Monday, September 29, 2008

बम और घुटन

बम और घुटन
थमी सांसें और मिला कफन

ख्वाहिशें हो रही हैं दफन
कहां खो गया इस देश का अमन

अब बचा है कोई ऐसा चमन
जहां लग सके मेरा मन

अब जल रहा है तन-बदन
सूना हो गया गगन

कहीं बहस तो कही विष वमन
पर सब हैं अपने में मगन

Wednesday, September 17, 2008

हाय दिल्ली, हाय दिल्ली

खूब कमाओ, खूब बहाओ
गरीबों को दिखाओ, उन्हें सताओ
पर खुद रहो बम-बम

जब हो बात त्याग करने की
मुंह छुपाओ, दुम दबाओ
पर बात निकले जब दावेदारी की
जोर से बोलो हम-हम

हाय दिल्ली, हाय दिल्ली
तू जब उड़ाती गरीबों की खिल्ली
दिल कहता : तुझसे तो बेहतर भूखी बिल्ली

Tuesday, September 9, 2008

करवटों में जब गुजरी हो रात


करवटों में जब गुजरी हो रात
गहरे कहीं दबी होगी कोई बात

ओ मेरे मीत, जब हो तेरा साथ
तो फिर कैसा डर, किसकी घात

दुश्मन भले हों छः, सात या आठ
पढ़ा लूंगी मैं उन्हें दोस्ती का पाठ

विद्वान मूर्खों की नहीं होती कोई जात
ठान ले तू तो दे सकती है करारी मात

और अंत में

है यही असली, सच्ची और खरी बात
भले मारे तू लात, पर रहेगा मेरा साथ

Monday, September 8, 2008

तरुणाई के सवाल


मेरी तरुणाई
पूछे मुझसे
बता मैं कौन?

सवाल सुनकर मैं शर्माई
कहा न गया कुछ
रह गई मौन।

मेरी कविता
मुझसे कहे
देख मैं तो बह चली अब
गली, गांव और देश

मेरा अल्हड़ मौन
पूछे मुझसे
बता मैं जाऊं किधर
धरूं अब कौन-सा वेष

हे सर्वेश, हे सर्वेश, हे सर्वेश

Sunday, September 7, 2008

गाती रही तो रोती रही

गाती रही तो रोती रही
रोती रही तो भी गाती रही
छोटी रही तो सोती रही
सोती रही तो खोती रही

सोचा, जीवन में रखा क्या है
सोना और खाना
या फिर आना और यूं ही चले जाना

फिर जाना, इस जीवन में है
बहुत कुछ पाना
मैंने माना
अच्छा लिखूंगी तो मिलेगी तारीफ
और बुरा लिखूंगी तो ताना
फिर जनाब, जरा बताएं आप
क्यों बंद करूं मैं अपना गाना

Thursday, September 4, 2008

पहेली पोस्ट के बाद दूसरा फेंका

इतने लोग पढ़ते हैं ब्लॉग। वह भी हिंदी का। एक छोटी-सी टिप्पणी पर बड़े कद वाले 18 लेखक-लेखिकाओं के कमेंट! मैं बेहद रोमांचित हूं। वाकई उन तमाम लोगों की शुक्रगुजार भी हूं, जिनकी प्रेरणा से मैंने ब्लॉग बनाने की बात सोची। नवभारत टाइम्स का खास कर, जहां छपे कॉलम ने मुझे ब्लॉग बनाने के लिए किसी और सहारे की जरूरत महसूस नहीं होने दी। ऋणी हूं मैं उन तमाम लोगों की जिन्होंने मेरे ब्लॉग का मुआयना किया। मुझे पढ़ा। मेरे लिखने को महत्व दिया। महज महत्व ही नहीं अपने बहुमूल्य बेचारों से मेरे ब्लॉग को सम्मानित भी किया। जी चाहता है, सबके ब्लॉग की लिंक मैं अपने ब्लॉग पर लगा लूं। पर मुझे नहीं पता कि इसके लिए उनकी परमिशन कैसे मिलेगी। अगर मेरे ब्लॉग का लिंक उनके ब्लॉग पर लग जाए, तो मैं समझूंगी उन्होंने मुझे इस ब्लॉग पर अपने ब्लॉग का लिंक लगाने का निमंत्रण दिया।

निमंत्रण

ओ महारथी
तुम सबके कमेंट मिले
तो मन में सवाल उठा
कि अरे खुशी तुम अब तक कहां थी?

वाकई,
इतना सम्मान
मेरी कविता जब पाए
मैं हो जाऊं निरुपाय
लगे कि भद्रजन भी बसते हैं यहां
नहीं सिर्फ चौपाये।

हे सुधिजन
आप हमेशा यहां आएं
अपने कमेंट से हमें
अपनी पलकों पे बिठाएं
मैं भूल जाऊं कि मैं कहां थी
किस बियाबान में
उड़ूं तो सिर्फ आपकी तारीफों की यान में...

-शुक्रिया एक बार फिर आप सबों का

Tuesday, September 2, 2008

यह मेरी पहली पोस्ट है

झूठ तो कदम-कदम पर मिलते हैं, पर सच कहां? झूठे का बोलबाला कब तक रहेगा, सचाई पर धूल की परत आखिर कब तक रहेगी...। लोग कहते थे कि इंटरनेट के लिए अंग्रेजी ही है। पर ऐसा कहां। कितनी-कितनी बातें लिखी हैं हिंदी में। वह भी देवनागरी लिपि में। भला, सुख के ऐसे समय में मैं खुद को पीछे कैसे रखूं। मैं तो नाचूंगी। गाऊंगी। पूरे जोशो-खरोश के साथ। इससे बड़ी खुशी की बात क्या होगी मेरे लिए कि मेरी मातृभाषा मुझे मात्र भाषा नहीं लग रही। इसका प्रसार हो रहा है। हम खुद को इसी भाषा में एक्सप्रेस कर रहे हैं। अंग्रेजी शब्दों का भी इस्तेमाल कर रही हूं तो लिपि देवनागरी ही है। वह दिन ढल गया जब हिंदी को रोमन लिपि में लिख रही थी। सचमुच, हिंदी को रोमन में देख रोता था मन। खुशी के इस मौके पर मेरे भीतर से फूट रहे हैं कुछ भाव। पेश कर रही हूं उन्हें शब्दों में आपके लिए। इसे आप ड्राफ्ट मानें या फाइनल। यह तो मेरे मन के भाव हैं।

ओ हिंदी,
तू तो है मेरे माथे की बिंदी
तुझे पाकर तो मैं सिहरती रही हूं
पल-पल, हर-पल
मेरे भीतर बहती नदी
करती रहती है
कल-कल, कल-कल।