यह कैसा पुरुष है
जो करता रहता है दिन भर
कमरों से लेकर बरामदे तक को
संवारने की मेहनत
वाकई यह पुरुष ही है न
जो देखकर किसी साथी की तकलीफ
रो पड़ता है भीतर ही भीतर
गोया उसका दर्द
उससे ज्यादा महसूस कर
कांप जाते हैं होठ
आंखें जाती हैं भर
यार मेरे, तू भी देख जरा
कौन है यह
इस सोसाइटी की नुक्कड़ पर खड़ा
बेचैनी अपने चेहरे पर पाले
जिसे उसके बच्चे
जैसे चाहें
वैसे नचा लें
यह तुझे भी पुरुष ही लग रहा है न!
खा गई न तू भी धोखा!
पहचान इसे
बच्चों का इंतजार कर रहा है यह शख्स
और जब भी नजर आता है मुझे ऐसा कोई पुरुष
यकीन मान,
मुझे दिखता है उसमें मां का अक्स
Monday, November 10, 2008
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