Monday, November 10, 2008

मां कैसी होती है

यह कैसा पुरुष है
जो करता रहता है दिन भर
कमरों से लेकर बरामदे तक को
संवारने की मेहनत

वाकई यह पुरुष ही है न
जो देखकर किसी साथी की तकलीफ
रो पड़ता है भीतर ही भीतर
गोया उसका दर्द
उससे ज्यादा महसूस कर
कांप जाते हैं होठ
आंखें जाती हैं भर

यार मेरे, तू भी देख जरा
कौन है यह
इस सोसाइटी की नुक्कड़ पर खड़ा
बेचैनी अपने चेहरे पर पाले
जिसे उसके बच्चे
जैसे चाहें
वैसे नचा लें
यह तुझे भी पुरुष ही लग रहा है न!

खा गई न तू भी धोखा!
पहचान इसे
बच्चों का इंतजार कर रहा है यह शख्स
और जब भी नजर आता है मुझे ऐसा कोई पुरुष
यकीन मान,
मुझे दिखता है उसमें मां का अक्स

7 comments:

Udan Tashtari said...

सही है..ऐसा ही है मां का अक्श!!

Smart Indian said...

सुंदर अभिव्यक्ति!

Dr. Amar Jyoti said...

अनूठी अभिव्यक्ति!पुरुष तो भावना और ममत्व में शून्य होता है-इस मिथक को तोड़ती है यह रचना। बधाई।

Satish Saxena said...

बहुत अच्छा , अलग हट के !

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत प्रखर अिभव्यिक्त ।

http://www.ashokvichar.blogspot.com

जितेन्द़ भगत said...

आपकी कवि‍ता यह बताती है कि‍ मॉं का ममत्‍व एक अलौकि‍क अनुभूति‍ है, जो कि‍सी के भी ह्रदय में बसी हो सकती है- चाहे वो पुरूष हो या स्‍त्री।

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर।