Wednesday, October 1, 2008

जो गए थे देखने तेरा चेहरा

जो गए थे देखने तेरा चेहरा, छूने तेरे पांव
क्यों छीना उनसे तूने, उनका घर उनका गांव

सुबह के गए क्यों नहीं लौटे बाबा, क्यों रो रही है माई
बच्ची को कैसे समझाऊं, छिन गए बाबा, छिन गई ताई

कहते हैं कि इस बार हिंदू है मरा, मुसलमानों ने मारा
फिर मुझे क्यों लगता कि इंसान है मरा, हैवानों ने मारा

गुस्सा, नफरत, साजिश और घात, क्यों नहीं भाता
अब कहते हैं लोग मुझसे, तुझे जीना नहीं आता

उनका आरोप है मुझपर कि तेरी आंखें हैं पथराई
बस इतना सुनकर ही ये झट से फिर भर आईं

अब और हमला मत करो, पाट डालो ये खाई
खुशी चाहे हर कोई, सुन मेरे बंधु, ओ मेरे भाई

5 comments:

वीनस केसरी said...

एक अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यवाद


वीनस केसरी

Reetesh Gupta said...

गुस्सा, नफरत, साजिश और घात, क्यों नहीं भाता
अब कहते हैं लोग मुझसे, तुझे जीना नहीं आता

बहुत ही अच्छा लिखा है आपने ...बधाई

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

bahut achchi baat kahi hai aapney

अब और हमला मत करो, पाट डालो ये खाई
खुशी चाहे हर कोई, सुन मेरे बंधु, ओ मेरे भाई

http://www.ashokvichar.blogspot.com

जितेन्द़ भगत said...

अरे वाह, गहन संवेदनाऍं लेकर आई हैं आप इस कवि‍ता में-
कहते हैं कि इस बार हिंदू है मरा, मुसलमानों ने मारा
फिर मुझे क्यों लगता कि इंसान है मरा, हैवानों ने मारा
वाकई काबि‍ले तारि‍फ, शब्‍द भी नाप-तौल कर इस्‍तमाल कि‍या है, यूँ ही मेहनत करें, पाठकों की उम्‍मीद बरकरार रहेगी। शुभकामनाऍं।

Amit K Sagar said...

आपका प्रोफाइल भी पढा; शब्द जैसे ख़तम हो गये हैं...जारी रहिये...शुभकामनाएं.
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अमित के. सागर