करवटों में जब गुजरी हो रात
गहरे कहीं दबी होगी कोई बात
ओ मेरे मीत, जब हो तेरा साथ
तो फिर कैसा डर, किसकी घात
दुश्मन भले हों छः, सात या आठ
पढ़ा लूंगी मैं उन्हें दोस्ती का पाठ
विद्वान मूर्खों की नहीं होती कोई जात
ठान ले तू तो दे सकती है करारी मात
और अंत में
है यही असली, सच्ची और खरी बात
भले मारे तू लात, पर रहेगा मेरा साथ
गहरे कहीं दबी होगी कोई बात
ओ मेरे मीत, जब हो तेरा साथ
तो फिर कैसा डर, किसकी घात
दुश्मन भले हों छः, सात या आठ
पढ़ा लूंगी मैं उन्हें दोस्ती का पाठ
विद्वान मूर्खों की नहीं होती कोई जात
ठान ले तू तो दे सकती है करारी मात
और अंत में
है यही असली, सच्ची और खरी बात
भले मारे तू लात, पर रहेगा मेरा साथ
5 comments:
बहुत ख़ूब...
बधाई करवटों में जब गुजरी हो रात
गहरे कहीं दबी होगी कोई बात
बहुत अच्छी कविता । शब्दों में भाव को सुन्दर ढ़ग से प्रस्तुत किया आप ने ।बधाई
दुश्मन भले हों छः, सात या आठ
पढ़ा लूंगी मैं उन्हें दोस्ती का पाठ
ye jazba yoon hi bana rahe....
अगर बुरा न माने तो एक कमी पर ध्यान दिलाना चाहूँगा। आगाज़ अच्छा था, पर बीच में बात घूम-सी गई और अंजाम तक पहुँचकर बिखर-सी गई। अगर यहीं एक टिप्पणी में इस कविता की व्याख्या कर दें तो समझने में मुझे सुभिता हो। धन्यवाद।
(निवेदन है कि इस बात का अन्यथा न लें।)
खुशी को खुशी हुई जितेंद्र भगत जी कि आपने बेबाक टिप्पणी रखी।
दरअसल, यह बिखरी मनःस्थिति की ही कविता है। इसलिए आपको बिखराव दिख रहा है। हर दो पंक्ति एक नई स्थिति रख रही है। कुछ पंक्तियां भले जुड़ी हुई दिख जा रही हों, पर यह घूमी हुई स्थितियों का ही चक्कर है।
मेरी इस मनोदशा को बिखराव के रूप में ही समझें तो बात शायद ज्यादा क्लियर होगी।
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