यह कैसा पुरुष है
जो करता रहता है दिन भर
कमरों से लेकर बरामदे तक को
संवारने की मेहनत
वाकई यह पुरुष ही है न
जो देखकर किसी साथी की तकलीफ
रो पड़ता है भीतर ही भीतर
गोया उसका दर्द
उससे ज्यादा महसूस कर
कांप जाते हैं होठ
आंखें जाती हैं भर
यार मेरे, तू भी देख जरा
कौन है यह
इस सोसाइटी की नुक्कड़ पर खड़ा
बेचैनी अपने चेहरे पर पाले
जिसे उसके बच्चे
जैसे चाहें
वैसे नचा लें
यह तुझे भी पुरुष ही लग रहा है न!
खा गई न तू भी धोखा!
पहचान इसे
बच्चों का इंतजार कर रहा है यह शख्स
और जब भी नजर आता है मुझे ऐसा कोई पुरुष
यकीन मान,
मुझे दिखता है उसमें मां का अक्स
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7 comments:
सही है..ऐसा ही है मां का अक्श!!
सुंदर अभिव्यक्ति!
अनूठी अभिव्यक्ति!पुरुष तो भावना और ममत्व में शून्य होता है-इस मिथक को तोड़ती है यह रचना। बधाई।
बहुत अच्छा , अलग हट के !
बहुत प्रखर अिभव्यिक्त ।
http://www.ashokvichar.blogspot.com
आपकी कविता यह बताती है कि मॉं का ममत्व एक अलौकिक अनुभूति है, जो किसी के भी ह्रदय में बसी हो सकती है- चाहे वो पुरूष हो या स्त्री।
बहुत सुंदर।
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